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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी

अनुभव मुंशी प्रेम चंद


पर मुझे खटका हो गया। उस शंका को किसी तरह दिल से न निकाल सकती थी। वह एक चिनगारी की भाँति हृदय के अंदर समा गयी थी।
गरमी से देह फुँकी जाती थी; पर मैंने कमरे का द्वार भीतर से बंद कर लिया। घर में एक बड़ा-सा चाकू था। उसे निकालकर सिरहाने रख लिया। वह शंका सामने बैठी घूरती हुई मालूम होती थी।
किसी ने पुकारा। मेरे रोयें खड़े हो गये। मैंने द्वार से कान लगाया। कोई मेरी कुंडी खटखटा रहा था। कलेजा धक्-धक् करने लगा। वही दोनों बदमाश होंगे। क्यों कुंडी खटखटा रहे हैं? मुझसे क्या काम है? मुझे झुँझलाहट आ गयी। मैंने द्वार खोला और छज्जे पर खड़ी होकर जोर से बोली, कौन कुंडी खड़खड़ा रहा है? आवाज सुनकर मेरी शंका शांत हो गयी। कितना ढाढ़स हो गया! यह बाबू ज्ञानचंद थे। मेरे पति के मित्रों में इनसे ज्यादा सज्जन दूसरा नहीं है। मैंने नीचे जाकर द्वार खोल दिया। देखा तो एक स्त्री भी थी। वह मिसेज ज्ञानचंद थीं। यह मुझसे बड़ी थीं। पहले-पहल मेरे घर आयी थीं। मैंने उनके चरण स्पर्श किये। हमारे वहाँ मित्रता मर्दों ही तक रहती है। औरतों तक नहीं जाने पाती।
दोनों जने ऊपर आये! ज्ञान बाबू एक स्कूल में मास्टर हैं। बड़े ही उदार, विद्वान, निष्कपट, पर आज मुझे मालूम हुआ कि उनकी पथ-प्रदर्शिका उनकी स्त्री हैं। वह दोहरे बदन की, प्रतिभाशाली महिला थीं। चेहरे पर ऐसा रोब था, मानो कोई रानी हों। सिर से पाँव तक गहनों से लदी हुई। मुख सुंदर न होने पर भी आकर्षक था। शायद मैं उन्हें कहीं और देखती; तो मुँह फेर लेती। गर्व की सजीव प्रतिमा थीं; वह बाहर जितनी कठोर, भीतर उतनी ही दयालु।
'घर कोई पत्र लिखा?' यह प्रश्न उन्होंने कुछ हिचकते हुए किया।
मैंने कहा- हाँ, लिखा था।
'कोई लेने आ रहा है?'
'जी नहीं। न पिताजी अपने पास रखना चाहते हैं, न ससुरजी।'
'तो फिर?'
'फिर क्या, अभी तो यहीं पड़ी हूँ।'
'तो मेरे घर क्यों नहीं चलतीं? अकेले तो इस घर में मैं न रहने दूँगी।'
'खुफिया के दो आदमी इस वक्त भी डटे हुए हैं।'
'मैं पहले ही समझ गयी थी, दोनों खुफिया के आदमी होंगे।'
ज्ञान बाबू ने पत्नी की ओर देखकर, मानो उसकी आज्ञा से कहा- तो मैं जाकर ताँगा लाऊँ?
देवीजी ने इस तरह देखा, मानो कह रही हों, क्या अभी तुम यहीं खड़े हो?
मास्टर साहब चुपके से द्वार की ओर चले।
'ठहरो'- देवीजी बोलीं- कै ताँगे लाओगे?
'कै!' मास्टर साहब घबड़ा गये।
'हाँ कै! एक ताँगे पर तीन सवारियाँ ही बैठेंगी। संदूक, बिछावन, बरतन-भाँडे क्या मेरे सिर पर जायेंगे?'
'तो दो लेता आऊँगा।'- मास्टर साहब डरते-डरते बोले।
'एक ताँगे में कितना सामान भर दोगे?'
'तो तीन लेता आऊँ?'
'अरे तो जाओगे भी। जरा-सी बात के लिए घंटा भर लगा दिया।'
मैं कुछ कहने न पायी थी, कि ज्ञान बाबू चल दिये। मैंने सकुचाते हुए कहा- बहन, तुम्हें मेरे जाने से कष्ट होगा और...
देवीजी ने तीक्ष्ण स्वर में कहा- हाँ, होगा तो अवश्य। तुम दोनों जून में दो-तीन पाव भर आटा खाओगी, कमरे के एक कोने में अड्डा जमा लोगी, सिर में आने का तेल डालोगी। यह क्या थोड़ा कष्ट है!'
मैंने झेंपते हुए कहा- आप तो बना रही हैं।'
देवीजी ने सहृदय भाव से मेरा कंधा पकड़कर कहा- जब तुम्हारे बाबूजी, लौट आवें; तो मुझे भी अपने घर मेहमान रख लेना। मेरा घाटा पूरा हो जायगा। अब तो राजी हुई। चलो असबाब बांधो। खाट-वाट कल मँगवा लेंगे।'

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